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आनंद केंटिश कुमारस्वामी-एक अद्वितीय, प्रेरक विद्वान और लेखक

आनंद केंटिश कुमारस्वामी-एक अद्वितीय, प्रेरक विद्वान और लेखक
  • PublishedOctober 6, 2023

आनंद केंटिश कुमारस्वामी 20वीं सदी के अग्रणी कला इतिहासकारों में से एक थे। कुमारस्वामी सीलोनी तमिल तत्त्वज्ञानवेत्ता, अग्रणी इतिहासकार, और भारतीय कला के दार्शनिक होने के साथ, पश्चिमी दुनिया के लिए भारतीय संस्कृति के प्रारंभिक व्याख्याकार थे। आनंद केंटिश को कला-इतिहास लेखन अपनी व्याख्यात्मक वाक्पटुता और भारतीय कला की स्वदेशी जड़ों की खोज के कारण बौद्धिक मील का पत्थर माना जाता है। वह अध्ययन के कई क्षेत्रों में एक अद्वितीय और प्रेरक विद्वान और लेखक हैं, जिनकी अपनी सुदृढ़ मान्यताएं हैं।

कुमारस्वामी मैकालेवादी शिक्षा प्रणाली की निंदा करने वाले पहले विद्वान
2008 में, आईजीएनसीए ने उनकी पुस्तकों, कला वस्तुओं और चित्रों (बंगाल स्कूल, राजपूत और पहाड़ी स्कूल ऑफ पेंटिंग आदि), तस्वीरों और भारतीय और पश्चिमी दार्शनिकों, इतिहासकारों, चर्च इतिहासकारों तथा इतिहासकारों, क्यूरेटर और दोस्तों के साथ उनके पत्राचार का संग्रह उनके कानूनी उत्तराधिकारी से हासिल किया था। वह मैकालेवादी शिक्षा प्रणाली के दूरगामी परिणामों को पहचानते थे और इसकी निंदा करने वाले पहले विद्वान थे।

वह एक द्रष्टा और दिव्यदर्शी थे क्योंकि उनका दृष्टिकोण निडर, सच्चा, समझदार था और यह भारतीय परंपराओं और जीवन शैली की नब्ज की वास्तविक समझ से निकला था। हिंदू धर्म की सर्वोच्च परंपरा में माने तो आनंद कुमारस्वामी एक ऋषि हैं ।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) आज, 6 अक्टूबर को आनंद कुमारस्वामी की 76वीं पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में दूसरा आनंद कुमारस्वामी स्मारक व्याख्यान आयोजित कर रहा है, जिसका विषय ‘चित्रसूत्र में निर्दिष्ट मिमेसिस की समस्या के माध्यम से भारतीय कला इतिहास को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से मुक्त कराना’ है। यह व्याख्यान नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स के प्रोफेसर पारुल दवे मुखर्जी देंगे और सत्र की अध्यक्षता नई दिल्ली स्थित आईजीएनसीए के सदस्य सचिव प्रोफेसर सच्चिदानंद जोशी कर रहे हैं।

भारतीय कला इतिहास को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से मुक्त कराना व्याख्यान का उद्देश्य

पश्चिमी विद्वानों द्वारा 19वीं सदी के मध्य और 20वीं सदी की शुरुआत के बीच शुरू किए गए भारतीय कला इतिहास के अध्ययन में भारतीय कला में यूरोपीय मानदंडों और पद्धति को लागू किया गया। हाल ही में, यह यूरोकेंद्रित पूर्वाग्रह कम हुआ है। भारतीय कला वस्तुओं और उनकी सौंदर्यात्मक भाषा के साथ बढ़ती परिचितता ने ऐसी वस्तुओं को उन लोगों के दृष्टिकोण से समझने और समझाने का प्रयास किया है जिनके लिए दरअसल वे बनाई गई थीं। इस विचार के मद्देनज़र आईजीएनसीए कला और संस्कृति के क्षेत्र में आनंद केंटिश कुमारस्वामी द्वारा किए गए आलोचनात्मक और व्यापक कार्यों की स्वीकारोक्ति के तौर पर प्रोफेसर पारुला दवे मुखर्जी द्वारा ‘टूवार्ड्स डिकोलोनाइजिंग इंडियन आर्ट हिस्ट्री थ्रू द प्रॉब्लम ऑफ मिमेसिस इन द चित्रसूत्र’ शीर्षक से दूसरे मेमोरियल व्याख्यान का आयोजन कर रहा है। इस व्याख्यान का उद्देश्य इस सिद्धांत के माध्यम से भारतीय कला इतिहास को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से मुक्त कराना और प्राचीन भारत की दृश्य कलाओं के साथ एक नया जुड़ाव विकसित करना है।