Deepawali: कुम्हार चाक से गढ़ रहे रोशनी की उम्मीद, मिट्टी की सोंधी महक के साथ दीयों का अलग महत्व
रोशनी का त्योहार दीपावली भले ही रंगीन-सतरंगी बल्बों से शहर की अट्टालिकाओं को रोशनी से चकाचौंध करता हो, पर आस्था के साथ बने मिट्टी के दीयों का एक अलग ही महत्व है। हाईटेक युग में एक से बढ़कर एक रंगीन बल्ब अपनी खूबसूरती की छटा बिखेरेंगे तो वहीं मद्धिम सा जलता हुआ मिट्टी का दीया परंपरा को जीवित रखते हुए तमसो मा ज्योतिर्गमय (अंधकार से प्रकाश की ओर चलो, बढ़ो) का संदेश देता है।
कुम्हारों के लौट रहे दिन
धरतेरस के साथ पंचपर्व दीपावली की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में दूसरों के घरों को रोशन करने के साथ अपने घर भी खुशियां लाने की उम्मीदों संग कुम्हारों की चाक दिन-रात चल रही है। आधुनिक युग में भी दीपावली पर दीया और बाती के मिलन से ही घर-आंगन रोशन होंगे। दीयों के बाजार भी सज चुके हैं। कुम्हारों को उम्मीद है कि एक बार फिर से उनके अच्छे दिन लौटकर आएंगे। दीपावली दीयों का त्योहार है। कुम्हार दीये बनाने में तेजी से जुटे हैं। मिट्टी के दीपक व रोज बिकने वाले कुल्हड़ आदि बनाने में माता-पिता के साथ उनके बच्चे भी हाथ बंटा रहे हैं। कोई मिट्टी गूथने में लगा है तो किसी के हाथ चाक पर आकार दे रहे हैं। देहरादून के कुम्हार मंडी समेत अन्य स्थानों पर इस समय दिन-रात मिट्टी के दीये बनाने का काम चल रहा है।
दीयों की बिक्री बढ़ने से लौटी खुशी
पुश्तैनी काम में लगे कुम्हार बताते हैं कि इस बार मिट्टी के दीयों की मांग अधिक है। अब तक 35 हजार दीये बनाए हैं। दीपावली तक 70-80 रुपये सैकड़ा तक दीये बिक जाते हैं। फिलहाल अभी 40 से 60 रुपये प्रति सैकड़ा दीये बेचे जा रहे हैं।
रोजगार का जरिया बनी पुश्तैनी कला
कुम्हारों का कहना है कि गत तीन वर्ष पहले पैतृक व्यवसाय खत्म सा हो गया था। अब लोग फिर मिट्टी के सामान को प्रमुखता दे रहे हैं। लोगों की बदली सोच से लग रहा है पुश्तैनी कुम्हारी कला-व्यवसाय एक बार फिर रोजगार का जरिया बनेगा। इससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लोकल फार वोकल व आत्मनिर्भर भारत अभियान भी उड़ान भरेगा।
ईको फ्रेंडली होते हैं मिट्टी के सामान
पर्यावरणविद डॉ. विनोद जुगलान बताते हैं कि मिट्टी से निर्मित मूर्तियां, दीये व खिलौने इको फ्रेंडली होते हैं। इसकी बनावट, रंगाई व पकाने में किसी भी प्रकार का केमिकल प्रयोग नहीं किया जाता। इको फ्रेंडली दीये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते। पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने से मिट्टी की दीये और खिलौने फिर से गांवों व बाजारों में दिखने लगे हैं।
दीपावली पर मिट्टी के दीये जलाने की ही परंपरा
पर्यावरणविद डॉ. विनोद कहते हैं कि भारत देश में दीपावली पर मिट्टी के दीये जलाने की ही परंपरा रही है। हमारे पूर्वज मिट्टी के दीये का उपयोग करते थे। ये दीये न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से बेहतर है बल्कि इससे कुम्हारों को भी अपने परिवार का भरण-पोषण करने में मदद मिलती है। मिट्टी के दीये जलाने से सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। दीवापली हम सब की है। हमें यह प्रण लेना होगा कि सभी मिट्टी के दीये ही जलाएं। इससे कुम्हारों के घर भी रोशन होंगे।
उपभोक्तावादी माहौल के बीच मिट्टी की सोंधी महक
देहरादून निवासी बलदेव पाराशर कहते हैं कि जनसामान्य की धारणा में दीपावली का संबंध मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम से है, जो 14 वर्ष बाद रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके स्वागत में लोगों ने दीप जलाए थे। दीपावली के संबंध में महाकाली द्वारा असुरसंहार का भी आख्यान है। प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति की एक खास विशेषता रही है कि इसे न सिर्फ संस्कृति, बल्कि बौद्धिक एवं नैतिक मूल्यों से भी जोडऩे की सार्थक कोशिश की गई है। यही कारण है कि वर्तमान समय में तमाम उपभोक्तावादी माहौल के बीच कुछ हद तक मिट्टी की सोंधी महक शेष बची है।