पपीते की व्यवसायिक खेती में तेजी से हो रही वृद्धि, समृद्ध हो रहा देश का किसान
भारत की विविध जलवायु का ही वरदान है कि हमारे देश में साल भर फलों की खेती संभव है। पपीता ऐसा ही एक लोकप्रिय फल है जो भारतीय और वैश्विक बाजार में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की 2002 की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर 38 प्रतिशत उत्पादन कर भारत पपीते का सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत में आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, असम, बिहार, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में मुख्यतः इसकी व्यावसायिक खेती की जाती है। इसके अतिरिक्त बागवानी का शौक रखने वाले व्यक्ति भी अपनी गृह वाटिका में पपीता लगाना काफी पसंद करते हैं।
पपीता उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में आसानी से उगाए जाने वाला फलदार पेड़ है जिसके फल पोषक तत्वों से भरपूर, अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक और स्वादिष्ट होते है। पपीते में विटामिन ए एवं सी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है और इसका फल सुपच और औषधीय गुणों से भरपूर है। पपीते के कच्चे फल का उपयोग पेठा, बर्फी, खीर, रायता, सब्जी इत्यादि के लिए भी किया जाता है जबकि पके फलों से जैम, जेली, नेक्टर तथा कैंडी इत्यादि बनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त कच्चे फल से पपेन नामक एक विशिष्ट एंजाइम बनाई जाती है जिसका सौंदर्य तथा उद्योग जगत में व्यापक उपयोग होता है।
आज भारत बड़ी मात्रा में पपीते और इससे संसाधित पदार्थों का निर्यात अमेरिका, अरब राष्ट्र, बांग्लादेश, चीन, नीदरलैंड, इंग्लैंड इत्यादि राष्ट्रों को कर रहा है और स्वदेश के बाजारों में भी साल भर इसकी मांग बनी रहती है। यही कारण है कि पपीते की व्यवसायिक खेती में तेजी से वृद्धि हुई है। फलस्वरूप खाद्य फसलों की तुलना में आज किसान पपीते की खेती और नर्सरी पौधे की बिक्री कर आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर हो रहे हैं। पपीते के सफल उत्पादन और नर्सरी प्रबंधन के लिए वैज्ञानिक पद्धति और तकनीकों का उपयोग करके कृषक स्वयं और राष्ट्र को आर्थिक रूप से लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए:
1. पपीते की खेती के लिए मध्यम उपोष्ण जलवायु जहां तापमान 10-26 डिग्री सेल्सियस तक हो सबसे उत्तम होता है, परंतु इसकी खेती अधिकतम 40 डिग्री सेल्सियस तापमान तक वाले क्षेत्रों में भी की जा सकती है।
2. इसकी खेती के लिए 6.5-7.5 अम्लांक(pH) वाली हल्की दोमट या दोमट मिट्टी जिसमें जल निकासी अच्छी हो सबसे उपयुक्त होती है। पपीते का तना खोखला और पत्तियां चौड़ी होने के कारण इसे पाले, लू और तेज हवा से बचाने की जरूरत होती है। अत: पाले व लू से बचाव हेतु आवश्यकता अनुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।
3. पपीते की नवीन किस्म का चुनाव खेती के उद्देश्य अनुसार किया जाना चाहिए जो कि मुख्यतः दो ग्रुप की है- पपेन और टेबल वैरायटी की किस्म। सीओ-2, सीओ-5 एवं सीओ-7 कुछ प्रसिद्ध पपेन किस्मे हैं। इसके अतिरिक्त कूर्ग हनीड्यू, पूसा नन्हा, सूर्या, पूसा मेजेस्टी रेड लेडी, रेड ग्लो लोकप्रिय टेबल वैरायटियों में से है।
4. बीज की बुआई फरवरी-मार्च, जून-जुलाई एवं अक्टूबर-नवंबर माह में की जानी चाहिए।
5. पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों को उगाना बहुत महत्व रखता है। पपीते के 1 हेक्टेयर के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परंपरागत देसी किस्मों के 500 ग्राम बीज एवं उन्नत संकर किस्मों के 300 ग्राम बीज की मात्रा पर्याप्त होती है। पपीते की पौध क्यारियों एवं पॉलीथिन एवं थैलियों में तैयार की जा सकती है और व्यावसायिक रूप से खेती या बिक्री हेतु उपयोग किया जा सकता है।
6. पपीते के पौधों की अच्छी वृद्धि तथा अच्छे गुणवत्तायुक्त फलोत्पादन हेतु सही समय पर सिंचाई अत्यंत आवश्यक है। नमी की अत्यधिक कमी या जल भराव का पौधों की वृद्धि एवं फलों की उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सामान्यत: शरद ऋतु में 10-15 दिन के अंतर पर ग्रीष्म ऋतु में 5-7 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। जल संरक्षण और सिंचाई की लागत को कम करने हेतु आधुनिक विधि ड्रिप तकनीक अपनाएं।
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